ईश्वर की खोज : एक सन्यासी का ज्ञान || Inspirational Story

ईश्वर की खोज : एक सन्यासी का ज्ञान || Inspirational Story
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आज की कहानी का शीर्षक है “ईश्वर की खोज।” जब मनुष्य खुद को जान लेता है तब उसे ईश्वर को जानने में तनिक भी देरी नहीं लगती । इसलिए ईश्वर को जानने के लिए अपनी उन पहचानो को खुद से दूर कर दो, जो कि ईश्वर और तुम्हारे बीच में एक दीवार का काम करती है ।

ईश्वर की खोज : एक सन्यासी का ज्ञान || Inspirational Story

एक बार एक महान सन्यासी अनेकों जगहों का भ्रमण करके एक राजा के दरबार में पहुँचे । राजा ने सन्यासी का सत्कार किया और उन्हें कुछ वक्त के लिए, अपने महल में ही ठहराने का इंतजाम भी कराया ।
राजा के मन में बहुत सारे सवाल थे, जिसका जवाब वह संन्यासी से चाहता था । राजा के भीतर लम्बे समय से ईश्वर को खोजने और मिलने की इच्छा थी । एक दिन राजा सन्यासी से अकेले में मिले ताकि अपने सारे संशय दूर कर सके ।

राजा बोले- ऋषिवर, मैं बहुत वर्षो से ईश्वर की खोज कर रहा हूँ, मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूँ ।
सन्यासी बोले- अच्छा, आप किस वक्त पर ईश्वर से मिलना चाहते हो ?
राजा बोल- ऋषिवर, शायद आप मुझे गलत समझ रहे हो । मैं किसी व्यक्ति की बात नही कर रहा । मैं ईश्वर-परमेश्वर की बात कर रहा हूंँ, जिसने यह सृष्टि बनाई है ।

सन्यासी बोले- हाँ, ईश्वर से तो मेरा गहरा संबंध है । मेरा तो यही काम है, सबको ईश्वर से मिलवाना ।
राजा बोले- तो ठीक है, आप मुझे ईश्वर से जितनी जल्दी हो सके मिलवा दीजिए ।

सन्यासी बोले- ठीक है, मैं तुम्हें ईश्वर से मिला दूँगा, इससे पहले मैं तुम्हें एक कागज देता हूँ, तुम इस पर अपना परिचय लिख दो । मैं ईश्वर तक तुम्हारा ये परिचय पहुँचा दूँगा ।

राजा ने उस कागज पर अपना नाम, पता, सारी उपाधियाँ लिखकर सन्यासी को दे दी।
सन्यासी बोले- यह सब तो मुझे सत्य नहीं लगता । यदि मैं तुम्हारा नाम बदल दूँ, तो क्या तुममे कुछ बदल जाएगा ? तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारा व्यवहार, क्या तुम्हारी सोचने की क्षमता पर कुछ फर्क आएगा ?

राजा बोले- नहीं ऋषिवर, मेरा नाम बदलने से मैं तो मैं ही रहूँगा । मुझ पर और मेरी चेतना में कोई फर्क नहीं आएगा ।
सन्यासी बोले- इससे यह बात सिद्ध होती है कि नाम तुम्हारी पहचान नहीं है ।

अब यह बताओ, यदि कोई तुमसे तुम्हारा राजपाठ छीन ले और तुम निर्धन हो जाओ, तो क्या तुम बदल जाओगे ?
राजा बोले- नहीं, अगर कोई मुझसे मेरा राज्य छीन ले या मैं बिल्कुल निर्धन हो जाऊँ, तो भी मैं तो मैं ही रहूँगा ।

सन्यासी बोले- यह बताओ, अभी तुम्हारी उम्र क्या है ?
राजा बोले- अभी मैं पचास वर्ष का हूंँ ।
सन्यासी बोले- अगले दस वर्ष के बाद तुम साठ साल के हो जाओगे, क्या तुम तब बदल जाओगे ?
राजा बोले-
नहीं, मेरी उम्र भले ही बढ़ जाएगी, लेकिन मैं तो मैं ही रहूँगा, मुझ में कोई परिवर्तन नहीं आएगा ।

सन्यासी बोले- इससे यह भी सिद्ध हुआ की उम्र बदलने से भी तुम नहीं बदलते ।
इस कागज पर तुमने अपनी जो भी पहचाने लिखी है वे सभी असत्य है । तुम अपना नाम, राज्य-पाठ, उम्र आदि को छोड़कर तुम्हारे पास जो बचता है । उसे लिख दो, उसे मैं ईश्वर के पास पहुँचा दूँगा ।

राजा बोले- मैं तो बड़ी दुविधा में फँस चुका हूंँ । अगर मैं अपना नाम, पता, उपाधियाँ आदि नहीं लिख सकता, तो मैं कैसे बताऊँ कि मैं कौन हूंँ ? यह तो मुझे खुद ही नहीं पता ।
सन्यासी बोले- राजा जब तुम खुद को ही नहीं जानते, तो तुम ईश्वर को किस प्रकार जानोगे ? “ईश्वर तो अपने ही मन की असीम गहराइयों में है ।” जब खुद को जान लिया जाता है तब ईश्वर को जानने में तनिक भी देर नहीं लगती ।

इतनी गहरी बात सुनकर राजा ने सन्यासी के हाथ जोड़ लिए और कहने लगे- आपका बहुत-बहुत आभार, ऋषिवर आपने मुझे ईश्वर को जानने का संकेत दे दिया है इसलिए पहले मैं खुद को जानूँगा, उसके बाद ईश्वर को ।

सन्यासी बोले- जब खुद को जान लोगे तो तब तुम्हें पता चलेगा कि ईश्वर तो पहले से ही मौजूद हैं तुम्हें जानने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी । खुद की खोज के साथ ईश्वर की खोज भी समाप्त हो जायेगी ।

सन्यासी मुस्कुराए और उन्होंने राजा से अलविदा कहकर अपने भ्रमण-यात्रा के लिए चले गए ।

अपनी सभी पहचानो खो देने के बाद, जो एक मौन प्राप्त होता है, उसे आत्मा कहते हैं । आत्मा के रूप में परमात्मा सभी मनुष्य के भीतर है, इसलिए ईश्वर को कहीं बाहर खोजने की जरूरत नहीं है वह तो मनुष्य के भीतर ही रहते हैं ।
कबीरदास जी ने भी कहा है :-

मोको कहां ढूँढ़े रे बन्दे…
मैं तो तेरे पास में !!
ना तीरथ में ना मूरत में..
ना एकान्त निवास में !!
ना मंदिर में ना मस्जिद में..
ना काबे कैलास में !!
मैं तो तेरे पास में बन्दे !
मैं तो तेरे पास में !!
ना मैं जप में ना मैं तप में..
ना मैं बरत उपास में !
ना मैं किरिया करम में रहता..
नहीं जोग सन्यास में !!
नहीं प्राण में नहीं पिंड में..
ना ब्रह्याण्ड आकाश में !
ना मैं प्रकृति प्रवार गुफा में..
नहीं स्वांसों की स्वांस में !
खोजि होए तुरत मिल जाऊं..
इक पल की तलाश में !!
कहत कबीर सुनो भई साधो..
मैं तो हूं विश्वास में !!

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